क्या करें है तूं, 'मेरा मेरा'

वो ओस की बूंदें भी उस पत्ते की नहीं, जिसने रातभर दिया उनको सहारा अपनी पलकों पर। वो तो बह गए सवेरा होते ही उस रेत की आगोश में।

वो पानी भी उस चोटी का नहीं जिसने पथरीली ठंड में आसरा दिया उस बर्फ़ को। वो तो बसंत की धूप में पिघल कर दौड़ गई किसी और के खेत हरे लहराने को।

वो फ़ल भी उस मिट्टी का नहीं जिसके सांचे में पला बढ़ा वो फ़लधारी पेड़। वो तो मौसम के आते ही चल दिया टपककर किसी और की झोली में।

क्या करें है तूं, 'मेरा मेरा' ऐ इनसान? 
जब तेरा यह देह भी तेरा नहीं। 

वो तो काल संग रच के खेल, छोड़ देगा तेरी रूह को,
जिसने जिंदगी भर मर मर के फुंकी दिलदारी तेरे होने में।

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