हारे हुए की शक्ल नहीं होती


इज्ज़त का शिकार हूं मैं 
वक्त का गुलाम हूं मैं 
पैगाम तो कई आए उस पार से
पर शराफत का नकाब हूं मैं।

मिलना हो अगर तो मिलेंगे किसी रोज़
मिलना हो ही ना कभी तो ना होगा अफसोस 
रोज़ रोज़ मिलने को ना अब बेताब हूं मैं। 

हारे हुए की शक्ल नहीं होती 
बदनाम कभी अक्ल नहीं होती 
शक्ल और अक्ल
इन दोनों से भी रिश्ता कई बार खो चुका हूं मैं। 

करने को करते हैं हम शायरी 
दरजे के हम नहीं लाज़मी
लफ्ज़ निकलते हैं सो लिखते हैं हम
फटे हुए कागज़ पे भीगी हुईं स्याही हूं मैं।

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